वर्ष 1951 में रीवा राज्य के विश्वविख्यात सफेद बाघ “मोहन” को एल्सेशियन कुत्ते जितने बड़े शावक के रूप में तत्कालीन रीवा महाराज द्वारा मडवास वन खण्ड में ग्राम पनखोरा के निकट कक्ष 236 (वर्तमान संजय दुबरी अभ्यारण्य, तत्कालीन परिक्षेत्र पश्चिम मड़वास) के भरतरी वन से पकड़ा गया था। उसे जिन्दा पकड़ने के लिए उसकी माँ एवं सामान्य रंग के दो अन्य शावकों को मारने के दो दिनों के बाद दिनांक 28.05.1951 को शाम 07:30 बजे उसे पिंजड़े में बन्द किया जा सका, जिसके बाद उसे गोविन्दगढ़ के किले में रखा गया।
जैव विविधता संरक्षण का इतिहास :
- जैव विविधता से तात्पर्य पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जीव जगत की विविधता से है। इसके अंतर्गत पृथ्वी पर समस्त जीवन सम्मिलित है, जिसमें जीन, प्रजातियाँ, पारिस्थतिकी तंत्र तथा पारिस्थतिकीय प्रक्रियाएँ भी आती हैं। जीव जगत को प्राणी (जन्तु) जगत एवं पादप जगत में विभक्त किया जा सकता है। प्राणी (जन्तु) जगत को वन्यप्राणियों एवं पालतू प्राणियों में बाँटा जा सकता है।
- वन्यप्राणी से तात्पर्य ऐसे समस्त प्राणियों से है, जो प्राकृतिक पर्यावरण में मानव के नियंत्रण के बाहर स्वतंत्र रूप से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस प्रकार जैवविविधता का अर्थ वन्यजीव की तुलना में एवं वन्यजीव का अर्थ वन्यप्राणी की तुलना में अधिक व्यापक है। अत: वनों के प्रबंधन, जिसमें वन्यप्राणी एवं जैवविविधता संरक्षण के उद्देश्य भी निहित हों।
- पर्यावरण के स्थायित्व को बनाए रखने में वन्यप्राणी संरक्षण की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। वन एवं वन्यप्राणी एक दूसरे के पूरक हैं। यदि यह कहा जाए कि वन अपने अस्तित्व के लिए वन्यप्राणियों पर पूर्णत: आश्रित हैं, तो गलत नहीं होगा। जहाँ राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारणयों के अंतर्गत मात्र 10 प्रतिशत क्षेत्र एवं एक चौथाई वन्यप्राणी ही हैं, वहीं शेष 90 प्रतिशत वन क्षेत्र में विद्यमान तीन चौथाई वन्यप्राणी का प्रबंधन क्षेत्रीय वनमण्डलों का ही उत्तरदायित्व है।
- ये वन क्षेत्र दूर-दूर बिखरे संरक्षित क्षेत्रों को आपस में जोड़कर संरक्षण गलियारों के रूप में वन्यप्राणियों के दीर्घकालीन संरक्षण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण भूमिा निभाते हैं।
- वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक के वन तत्कालीन रीवा राज्य के अंतर्गत थे। रीवा राज्य के शासकों द्वारा कई स्थानों पर शिकारगाहें बनाई गई थीं।
- खेल एवं आनन्द हेतु वन्यप्राणियों का आखेट किया जाता था। ऐसा उल्लेख मिलता है कि बघेल राजाओं द्वारा शासित “बांधवगढ़ राज्य” के हाथियों की मुलग दरबार में बहुत माँग थी। लगभग 150 वर्ष पूर्व तक मडवास इलाके के हाथी उपस्थित थे, जिनका आखेट रीवा महाराज रघुराज सिंह द्वारा किया जाता था।
- रीवा दरबार काल में बाघ का शिकार मुख्यत: शासकों द्वारा किया जाता था। बांधवगढ़ शासकों के द्वारा उनकी व्यक्तिगत बहादुरी को प्रतिष्ठित रखने के उद्देश्य से 109 शेरों का शिकार (माला) पूर्ण करने का प्रयास किया जाता था।
- महाराज वेंकट रमन सिंह न 1913-14 तक 111 बाघों का शिकार किया। 109 बाघों का शिकार होने पर माला मानी गई एवं इसे बड़ी धूमधाम से पूरे राज्य में उत्सव के रूप में मनाया गया था।
- महाराज गुलाब सिंह ने 144 बाघों का शिकार किया एवं वर्ष 1923-24 में मात्र एक वर्ष की अवधि में ही 83 बाघ मरे। यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय इस क्षेत्र में बाघ बहुतायत में थे।
- वनों में शासकों के अतिरिक्त वन्यप्राणियों के शिकार की अनुमति केवल इलाकेदारों तथा कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को ही थी। वर्ष 1927 से लागू किए गए कानून जंगल रियासत, रीवा के अन्तर्गत वर्ष 1930 में शिकार के नियम बनाए गए।
- शिकारगाहों में दरबार की अनुमति के बिना बाघ, गौर एवं समस्त वन्यप्राणियों का शिकार प्रतिबंधित था, किन्तु अन्य आरक्षित वनों में संबंधित वन अधिकारी के अनुमति से शिकार किया जा सकता था। शिकारगाहों के समीप कृषि भूमि में पटाखों, नकली कारतूसों आदि का उपयोग वन्यप्राणियों को भगाने के लिए करने की अनुमति थी।
- आरक्षित वनों में वन्यप्राणियों को मारने की अनुमति नहीं थी। रीवा राज्य के निवासियों को आम जंगल में बिना अनुमति पत्र के शिकार की अनुमति थी। माह अप्रैल, मई एवं जून में शिकार पर रोक थी। इन नियमों के अन्तर्गत पूरे राज्य में 321 शिकारगाह अधिसूचित थे, जिनमें से शिकारगंज, गऊनार, दुबरी एवं नौढि़या मुख्य शिकारगाहों में से कुछ थे।
- स्वतंत्रता के पश्चात् तक भी कार्य आयोजना क्षेत्र में अच्छी संख्या में वन्यप्राणी विद्यमान थे। प्रथम कार्य आयोजना में उल्लेखित है कि तत्समय बाघों का वितरण सभी क्षेत्रों में था एवं तेंदुआ तो वर्मिन के रूप में वर्गीकृत था।
- इसके अलावा खैरा वन खण्ड (चुरहट परिक्षेत्र) में भी सफेद बाघों को पकड़े जाने एवं इसके पूर्व वर्ष 1942 में गोविन्दगढ़ एक्सटेंशन वन खण्ड के सीमावर्ती गोविन्दगढ़ शिकारगाह वन खण्ड (रीवा वन मण्डल) में प्रथम सफेद बाघिन का शिकार किए जाने का उल्लेख मिलता है। किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् बदले परिवेश में आखेट पर से रीवा दरबार का नियंत्रण एवं एकाधिकार समाप्त हो जाने पर स्थानीय शिकारियों द्वारा भी वन क्षेत्रों व आबादी में वन्यप्राणियों का मनमाने ढंग से बड़े स्तर पर शिकार किया गया, जिसे रोकने में तत्कालीन वैधानिक प्रावधान भूतपूर्व शासकों के भय की तुलना में निष्प्रभावी साबित हुए।
- फसल सुरक्षा के उद्देश्य से ली गई बन्दूकों का बड़े स्तर पर दुरूपयोग वन्यप्राणियों के शिकार में किया गया। गोंड व बैबा जनजाति के आदिवासियों द्वारा भोजन हेतु जहर बुझे तीरों से पारम्परिक रूप से वन्यप्राणी प्रजातियों जैसे सांभर, चीतल, नीलगाय, जंगली सुअर आदि का शिकार किया जाता रहा।
- आरक्षित वनों में कई स्थानों पर शिकार हेतु मचान बने देखे गये थे। रीवा राज्य के शासकों द्वारा दरबार काल में बाघों की बड़ी संख्या में शिकार किया ही गया था, जो विंध्य प्रदेश में भी इस हेतु बने प्रावधानों के अन्तर्गत जारी रहा। इन परिस्थितियों में बाघ, तेंदुआ, गौर, सांभर, नीलगाय आदि सभी प्रकार के वन्यप्राणियों की संख्या में अत्यधिक कमी आ गई। किन्तु इस गम्भीर स्थिति का तत्काल आंकलन नहीं किया जा सका एवं नियमों के अन्तर्गत या अवैध रूप से अनियंत्रित आखेट जारी रहा।
आरक्षित एवं संरक्षित वनों में शिकार के सम्बन्ध में पुनरीक्षित किए गए मध्यप्रदेश आखेट नियम, 1963 के आधार पर वनों को विभिन्न शिकार खण्डों (शूटिंग ब्लॉक) में बाँटा जाता था। प्रत्येक वर्ष हेतु वन संरक्षक, रीवा वृत्त द्वारा वर्ष में आखेट किए जाने वाली प्रजातियों और उनकी संख्या का निर्धारण किया जाता था एवं आखेट अनुज्ञप्ति पत्र वन मण्डलाधिकारी द्वारा जीर किए जाते थे। वन मण्डलाधिकारी द्वारा नियमों की धारा 10 के अन्तर्गत प्रत्येक अनुज्ञप्तिधारक द्वारा आखेट किए जाने वाले वन्यप्राणियों की संख्या निर्धारित की जाती थी। - धारा 35 के अन्तर्गत आदमखोर एवं मवेशियों को मारने वाले वन्यप्राणियों को नष्ट करने का नि:शुल्क परमिट जिलाध्यक्ष द्वारा जारी किया जाता था। आखेट की अनुज्ञप्ति हेतु निम्नानुसार शुल्क देय था भारतीय नागरिक : रू. 2 प्रतिदिन (मासिक सीमा-न्यूनतम रू. 20, अधिकतम रू. 50) विदेशी नागरिक : रू. 20 प्रतिदिन (मासिक सीमा-न्यूनतम रू. 200, अधिकतम रू. 350) उपरोक्त शुल्क के अतिरिक्त म.प्र. शासन, वन विभाग के ज्ञाप क्र. 1445-7531-X-(II)-68 से उपरोक्त शुल्क के अतिरिक्त रॉयल्टी निर्धारित थी।
- भारत सरकार के निर्देशों के आधार पर विंध्य प्रदेश आखेट नियम, 1950 के नियम 10(ब) में प्रावधान किया गया कि विंध्य प्रदेश के मुख्य वन संरक्षक विंध्य प्रदेश की रियासतों के विभिन्न शासकों के लिए उनकी पुरानी सीमाओं के भीतर एक या दो शूटिंग ब्लॉक पूर्णत: उन्हीं के द्वारा शिकार के लिए आरक्षित कर सकते हैं। यह शर्त भी कि अधिकार का उपयोग विभाग के नियमों एवं कार्य आयोजनाओं के प्रावधान के अधीन ही किया जाएगा।
- आरक्षित वनों में घोषित दो अभ्यारण्यों (कुल क्षेत्रफल 16 वर्ग मील 244 एकड़) में शिकार बन्द करने के एवज में मुख्य वन संरक्षक, विंध्य प्रदेश के आदेश क्र. 254 दिनाक 22.10.1956 से देवमठ शूटिंग ब्लॉक क्र. 7 (कुल क्षेत्रफल 152.60 वर्ग मील) में रीवा शाासक को शिकार का एकाधिकार दिया गया।
- म.प्र. शासन, वन विभाग की अधिसूचना क्र. 2369-607-X-तिथि 12.01.1958 एवं क्र. 6152-X-58 तिथि 23.07.1959 से शासन की पूर्व अनुमति के बिना बाघ, गौर एवं कृष्ण मृग का शिकार प्रतिबंधित कर दिया गया। भारत सरकार के ज्ञाप क्र. 10-10-62/एफ11-तिथि 21.01.1963 के अनुसार मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया। म.प्र. शासन, वन विभाग की अधिसूचना क्र. 7254-X-70-7/10/70 से पूरे वर्ष को बाघ के शिकार के लिए बन्द घोषित किए गया। अंतराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आई.यू.सी.एन.) की अनुशंषा पर सितम्बर, 1971 में म.प्र. शासन द्वारा शिकार पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
- राज्य शासन की अधसिूचना क्र. 6034-X-(2)-71 दिनांक 11.11.1971 से वन्य पक्षी एवं प्राणी (संरक्षण) अधिनियम, 1912 के प्रावधानों को 26 प्रजातियों के लिए पूरे राज्य में लागू किया गया। राज्य शासन की अधिसूचना क्र. 6034-X-(2)-71 दिनांक 11.11.1971 एवं क्र. 6038-X-(2)-71 दिनांक 11.11.1971 से वन्य पक्षी एवं प्राणी (संरक्षण) अधिनियम, 1912 के अनुभाग-3 के प्रावधानों के अन्तर्गत वन्यप्राणियों की 50 प्रजातियों के लिए पूरा वर्ष आखेट हेतु बन्द घोषित किया गया।
- टाईगर रिजर्व क्षेत्र में स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप, उभयचर, कीट, मछली आदि वर्गों के वन्यप्राणी उनके हेतु उपयुक्त प्राकृतिक वासस्थलों में न्यूनाधिक संख्या में संपूर्ण कार्य क्षेत्र में विद्यमान हैं। शाकाहारी और माँसाहारी इस टाईगर रिजर्व क्षेत्र में 9 संकटग्रस्त (3 अति संकटापन्न, 3 संकटापन्न व 3 संवेदनशील) यहाँ अनुसूचित एक के 15 वन्यप्राणी पाये जाते हैं।
वनस्पति एवं वन्यप्राणी :
जैव विविधता के समृद्ध क्षेत्र :- संजय टाईगर रिजर्व, विंध्य क्षेत्र का भाग है, जो जैवविविधता की द्दष्टि से बहुत समृद्ध है। विंध्य क्षेत्र में पाई जाने वाली वानस्पतिक प्रजातियों एवं उनकी विलुप्ति की आशंका के स्तरों पर किए गए एक विस्तृत सर्वेक्षण एवं वैज्ञानिक अध्ययन को वन विभाग, अनुसंधान एवं विस्तार वृत्त, रीवा द्वारा एक “विंध्य क्षेत्र में जैव विविधता संकल्पना और इसके खतरे का आकलन” पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है, पोंडी-बस्तुआ क्षेत्र, कुसमी-टंसार-मड़वास एवं शिकारगंज-केहेन्जुआ पहाड़ी क्षेत्र।
वानस्पतिक प्रजातियाँ :
वृक्षों की प्रजातियाँ – 118, झाडि़यों – 49, शाकों – 235, लताओं – 60, घासों – 19, अन्य – 4 कुल 485 प्रजातियाँ
वन्य प्रा़णियों की प्रजातियाँ :
- माँसाहारी : बाघ, तेन्दुआ, भालू, लकड़बग्घा, लोमड़ी, सोनकुत्ता, भेडि़या, सियार, जंगली बिल्ली, जंगली सुअर
- शाकाहारी : चीतल, सांभर, नीलगाय, चिंकारा, बन्दर, मेड़की, खरगोश, सेही, चौसिंग, वनमुर्गी, मोर, नेवला
- संजय टाईगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में वर्तमान में स्थायी रूप से रह रहे 13 बाघ संजय-दुबरी अभ्यारण्य व संजय राष्ट्रीय उद्यान के मध्य विचरण करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। परिक्षेत्रों में भालू बहुतायत मात्रा में विद्यमान हैं। बड़े, छोटे माँसाहारी वन्यप्राणियों में तेन्दुआ, लकड़बग्घा, सियार एवं लोमड़ी टाईगर रिजर्व क्षेत्र के समस्त परिक्षेत्रों में पाए जाते हैं। अभ्यारण्य में भेडि़याँ भी यदा-कदा देखने को मिलते हैं।
रहवास का विवरण :
वन्यप्राणी प्रबंधन की दृष्टि से दक्षिणी व दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र के वन महत्वपूर्ण हैं। ये संजय दुबरी अभ्यारण्य व संजय राष्ट्रीय उद्यान के मध्य वन्यप्राणी पारगमन के लिए गलियारा उपलब्ध कराने के साथ-साथ संरक्षित क्षेत्रों के वन्यप्राणियों के संख्या में संभावित वृद्धि से उनके विस्तार हेतु संभावनायुक्त प्राकृतावास भी उपलब्ध कराते हैं। पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं एवं कार्यों को सुचारू रूप से चलाए रखने स्वच्छ निर्मल जल वनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्पाद है।
क्षेत्र में सोन, गोपद एवं बनास जैसी बारहमासी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में हैं। वर्षभर इन नदियों में स्वच्छ एवं शीतल जलधारा प्रवाहित होती रहे, इसके लिए इन वनों को अच्छी स्थिति में बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक है। इनके अतिरिक्त भी मवई, मोहन, नेऊर, बड़चड़, महान आदि सहायक नदियाँ एवं बड़ी संख्या में अन्य बड़े-छोटे नदी-नाले हैं, जिनमें वर्षभर पानी विद्यमान रहता है। ये सब अंतत: सोन नदी में ही मिल जाते हैं। अत: सोन नदी में सतत् जलधारा बहती रहने के लिए इसके आस-पास के वनों को सघन स्थिति में बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक है।
क्षेत्र में गुफाएँ शैलाश्रय, माँद, खड्ड आदि पर्याप्त संख्या में हैं, जो वन्यप्राणियों का आश्रय उपलब्ध कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। छायादार एवं खोखले वृक्षों में पक्षी अपना रहवास बनाते हैं। कार्य आयोजना के क्षेत्र में बड़ी नदियाँ एवं राजस्व एवं वन भूमि में कुछ बड़े बाँध एवं तालाब हैं, जो जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के अंतर्गत मगरमच्छ व घडि़याल से ले कर विभिन्न प्रकार की मछलियों, उभयचरों, कीट, मोलस्क, नीमेटोड, सरीसृप, पक्षियों आदि को आश्रय प्रदान करते हैं।
पर्यटन जानकारी :
पर्यटन प्रवेश द्वार का विवरण : संजय टाईगर रिजर्व, सीधी के भ्रमण के लिए दुबरी अभ्यारण्य के बड़काडोल, कोठार, बस्तुआ, खोली पहरी गेटो से व राष्ट्रीय उद्यान के अमझर, कुसमी एवं सोनगढ़ गेटों से होकर प्रवेश किया जा सकता है।
बाँधवगढ़/अमरकंटक की दिशा से आने वाले पर्यटक बड़काडोल, कोठार, बस्तुआ, अमझर एवं खोलीपहरी गेटों से प्रवेश कर सकते हैं।
वाराणसी एवं सिंगरौली से आने वाले पर्यटकों हेतु भुईमाड़, ईको सेन्टर कुसमी गेट होते हुए राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है।
संजय टाईगर रिजर्व सीधी के अन्तर्गत दर्शनीय एवं रमणीय स्थल :
- कन्हैयादह : कन्हैयादह परिक्षेत्र मोहन के अन्तर्गत गरूलडांड में साथा नामक नाला में एक अत्यन्त रमणीक जल प्रपात है। यहाँ पहुँचकर प्रकृति की सुम्य मनोहरी प्रकृति की अनुभूति होती है।
- बेटीदह : बस्तुआ परिक्षेत्र के जामडोल ग्राम के पास स्थित अत्यन्त रमणीक जल की धारा है। यहाँ पानी की धारा को पत्थओं पर अठखेलियाँ करते हुए देखना व उनके द्वारा चट्टानों को तराशते हुए देखना विस्मयकारी अनुभव है।
- रमदहा कुण्ड : रमदहा कुण्ड कुसमी सोनगढ़ मार्ग के समीप माँच महुआ में घोका नामक नाला में एक अत्यन्त रमणीक जल प्रपात है। घोकनाल संरक्षित क्षेत्र के अन्दर बसे ग्राम मझिगवाँ में उद्गम स्थल है।
- ठोंगा मन्दिर : ठोंगा मन्दिर मझौली तहसील मुख्यालय से पोड़ी रोड पर मझौली से 05 कि.मी. की दूरी पर ठोंगा पहाड़ी पर चट्टानों के अद्भुत संरचना पर मन्दिर का मनोरम नजारा राहगिरों के मन में स्वत: एक जिज्ञासा उत्पन्न करता है। यह मन्दिर पहाड़ों की पतली खड़ी चट्टान (Cliff) पर स्थित है।
- बरचर बाँध : टमसार कस्बे से 05 कि.मी. की दूरी पर बना हुआ बरचर बाँध जो दो पहाडि़यों के बीच से बह रही नदी पर 1985-86 पर बनाया गया है। इस स्थल से सूर्यास्त के समय बड़ा ही अद्भुत एवं सुन्दर दृश्य दिखाता है।
- बनास ट्रैल : ब्यौहारी बफर परिक्षेत्र के अन्तर्गत बहने वाली बनास नदीर जो वन्यप्राणियों से भरी हुई है। इनके किनारों पर वन्यप्राणियों का आवास है। बनास नदी के किनारे-किनारे चलने वाली यह ट्रैल में विभिन्न दर्शनीय स्थलों एवं ऊँचे-नीचे भू-भाग से होकर गुजरती है, जहाँ पर्यटकों को परम आनन्द भी अनुभूति होती है।
- कोरमार वाकिंग ट्रैल : परिक्षेत्र पोंड़ी के पास बहने वाली कोरमार नदी के किनारे बनी हुई यह वाकिंग ट्रैल सुरम्य स्थलों से होकर गुजरते हुए उत्तर-पूर्व भारत के प्राकृतिक स्थलों के समान अनुभव कराती है। इस ट्रैल में बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से बहता हुआ जल एवं इसके किनारों पर विभिन्न वानस्पतिक की प्रजातियाँ जो कि सफर को अत्यन्त मनमोहक बनाती है।
- गिद्धा पहाड़ : गिद्धा पहाड़ मझौली से 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित पहाड़ी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में किसी समय गिद्धों की विभिन्न प्रजातियाँ निवास करती थी। इस कारण से इसका नाम गिद्ध पहाड़ नाम पड़ा। ऊँचे स्थान पर खड़े होकर देखने पर आस-पास का क्षेत्र मनोहरी दृश्य दिखता है।
- राजगढ़ी : राजगढ़ी मड़वास बफर क्षेत्र में स्थित है जहाँ पर लगभग 200 वर्ष पूर्व बालेन्द्र वंश के राजाओं की राजधानी के अवशेष मिलते हैं। इस गड़ी से आस-पास देखने से विंध्य पर्वत मालाओं की श्रृंखलाएँ अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती हैं।
- भुईमाड़ गुफा : संजय टाईगर रिजर्व के भुईमाड़ बफर के अन्तर्गत भुईमाड़ से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित लगभग 300 वर्ष प्राचीन गुफा है, जिसमें स्थानीय मान्यताओं के अनुसार दूसरे राजाओं के आक्रमण या चढ़ाई के दौरान शरण लेते थे। लागों की मान्यता अनुसार भगवान शिव का वास स्थली है। यहाँ पर शिव की पूजा अर्चना भी करते हैं।
परिक्षेत्र बस्तुआ के अन्तर्गत मोहन सफेद बाघ की जन्म स्थलीय पनखोरा में है।
परिक्षेत्र दुबरी का कक्ष क्रमांक/189, बिटखुरी बीट, कक्ष क्रमांक 188 खरबर बीट में ट्रीफासिल (वृक्ष जीवाष्म) उपलब्ध है।
दुबरी परिक्षेत्र के बिटखुरी खरबर बीट में वृक्ष जीवाष्म (ट्रीफासिल्स) पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।
संजय दुबरी टाईगर रिजर्व में जैव विविधता – पक्षी, शाकाहारी और माँसाहारी, पाये जाते हैं। दुबरी टाईगर रिजर्व व अभ्यारण्य क्षेत्र में 9 संकटग्रस्त (3 अति संकटापन्न, 3 संकटापन्न व 3 संवेदनशील) यहाँ अनुसूची एक व 15 वन्यप्राणी प्रजाति के पाये जाते हैं।
पर्यटन धारण क्षमता :
- वनों में पर्यटन महत्व के कुछ रमणीक स्थल विद्यमान हैं। वर्षा के मौसम में और उसके बाद भी प्राकृतिक हरित आच्छादन रहने से इन स्थलों का सौंदर्य दर्शनीय होता है। साल एवं मिश्रित वनों का क्षेत्र होने से एवं सोन, गोपद एवं बनास जैसी बड़ी बारहमासी नदियाँ होने से रमणीय प्राक़तिक स्थलों की कोई कमी नहीं है।
- सीधी जिले में संजय राष्ट्रीय उद्यान, संजय दुबरी अभ्यारण्य एवं सोन मगर-घडि़याल अभ्यारण्य के रूप में वन्यप्राणी संरक्षित क्षेत्र भी हैं। अत: यहाँ के वनों को संरक्षित रखना अत्यन्त आवश्यक है।
- सोन मगर, घडि़याल अभ्यारण्य : सोन नदी में मगर घडि़याल के अतिरिक्त कछुएँ की प्रजातियाँ, सोन नदी की बीछी क्षेत्र में प्रवासी पक्षी भी आते हैं।
- सोन नदी पर विभिन्न जगहों पर मगर घडियाल कठोर कवच वाले कछुए एवं नरम कवच वाले कछुए पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं।
- सोन नदी के जोगदह स्थल पर मगर, घडि़यालों का प्रजनन स्थल भी है। यहाँ पर पर्यटकों के लिए वन कुटीर उपलब्ध है।सोन नदी में विभिन्न प्रकार के पक्षी एवं प्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। यहाँ पर जलीय पक्षियों की 48 प्रजातियाँ पर्यटकों का बरबस मन मोह लेते हैं। इनमें भारतीय स्कीमर जनवरी से जून तक प्रजनन के लिए आते हैं।
- बगदरा अभ्यारण्य : मध्यप्रदेश के पूर्वी भाग में कृष्ण मृग का महत्वपूर्ण अभ्यारण्य है। जहाँ पर कृष्ण मृग सहजता से दृष्टिगोचर हो जाते हैं।
क्षेत्र की विशिष्टता :
वन्यप्राणी संरक्षण के प्रति जागृति के अभाव के कारण लोग वनों एवं वन्यप्राणियों के महत्व को समझ नहीं पाते थे। संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से ग्रामीणों में वनों एवं वन्यप्राणियों के महत्व को समझाते हुए एक जन-चेतना विकसित करने का प्रयास विगत कई वर्षों से किया जा रहा है, जिसके अब अनुकूल परिणाम आने प्रारम्भ हुए हैं। वन समितियों के सहयोग से वनों के संरक्षण से वन्यप्राणियों के प्राकृतावास में आँशिक सुधार हुआ है।
वन्यप्राणियों के संरक्षण में जन-चेतना लाने के लिये प्रति वर्ष अकटूबर माह में वन्यप्राणी सप्ताह मनाया जाता है, जिसके अन्तर्गत सिनेमागृहों में स्लाइडस का प्रदर्शन, विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में निबन्ध, पेंटिंग, वाद-विवाद, क्विज प्रतियोगिताएँ आदि गतिविधियाँ कराई जाती हैं।
प्रत्येक वर्ष आयोजित किए जाने वाले विश्य वानिकी दिवस, विश्व पर्यावरण दिवस आदि के फलस्वरूप भी प्रकृत्ति एवं वन्यप्राणी संरक्षण के प्रति जनता में काफी सीमा तक जागरूकता आई है। डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक, एनिमल प्लैनेट जैसे टी.वी. चैनलों से भी लोगों में जागृत्ति बढ़ी है।
पहुंच मार्ग :
- रेल मार्ग : जबलपुर, ब्यौहारी, सतना, रीवा
- सड़क मार्ग : रीवा से ब्यौहारी, इलाहाबाद से सीधी, सतना से ब्यौहारी
- वायु मार्ग : इलाहाबाद, बनारस एवं जबलपुर